पारख के अंग (भक्ति मार्ग प्रभु पाने का रास्ता)
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#MuktiBodh_Part71
हम पढ़ रहे है मुक्तिबोध पुस्तक पेज (135-136)
‘‘पारख के अंग का सरलार्थ’’
सारांश :- पारख का अर्थ परख यानि जाँच-पहचान। परमात्मा का पारख (पहचान)
इस पारख के अंग में है। इस पारख के अंग में परमात्मा कबीर जी की समर्थता बताई है।
परमात्मा की परख उसकी शक्ति-समर्थता से होती है।
जैसे परमात्मा कबीर जी के विषय में इस अंग में लिखा है कि कबीर परमात्मा
प्रत्येक युग में सशरीर आते हैं। कभी बालक रूप धारण करके अपना ज्ञान समझाते हैं। कभी किसी साधु-संत जिंदा बाबा का वेश बनाकर अच्छी आत्माओं को तत्वज्ञान समझाते हैं। उनको मिलते हैं। संत धर्मदास जी को मिले। उनको तत्वज्ञान समझाया। वे श्री राम तथा
श्री कृष्ण यानि विष्णु जी से ऊपर कोई प्रभु नहीं मानते थे। तत्वज्ञान समझाया। सतलोक
में अपना वास्तविक स्थान व सिंहासन दिखाया। तब धनी धर्मदास जी को पारख हुआ कि
पूर्ण परमात्मा कबीर बंदी छोड़ जी ही हैं।
सशरीर प्रकट होने के विषय में संत गरीबदास जी ने यथार्थ वर्णन किया है जो कबीर
सागर से भी मेल करता है कि परमात्मा कबीर जी चारों युगों में सशरीर भिन्न-भिन्न नामों
से प्रकट होकर अपनी जानकारी स्वयं ही देते हैं।
सतयुग में सत सुकृत नाम रहता है। त्रोता में मुनीन्द्र, द्वापर में करूणामय कहलाते
हैं। कलयुग में कबीर नाम धराते हैं। कलयुग में सन् 1398 (विक्रमी संवत् 1455) में ज्येष्ठ
महीने की पूर्णमासी को सुबह ब्रह्म मुहूर्त (सूर्योदय से लगभग डेढ़ घण्टा पहले के समय को
ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं) में नवजात शिशु का रूप धारण करके काशी नगर के बाहर लहरतारा
नामक तालाब में कमल के फूल पर सतलोक से आकर विराजमान हुए। इस घटना के
प्रत्यक्ष दृष्टा ऋषि अष्टानंद जी थे जो स्वामी रामानंद जी के शिष्य थे। प्रतिदिन उस
लहरतारा सरोवर पर स्नान-ध्यान करने जाया करते थे। नीरू नामक जुलाहा भी प्रतिदिन
अपनी पत्नी नीमा के साथ उसी लहरतारा तालाब पर स्नान करने जाया करता था। आयु
लगभग साठ वर्ष हो चुकी थी। संतान नहीं थी। उनको कबीर परमात्मा कमल के फूल पर
मिले। अपने घर ले गए। परमात्मा ने कबीर नाम रखवाया। सुन्नत नहीं करवाया।
पाँच वर्ष की आयु में महर्षि रामानन्द को अध्यात्म ज्ञान में हराया। सतलोक दिखाया। स्वामी रामानन्द जी श्री विष्णु सतगुण के उपासक थे। कर्मकाण्ड करते थे। मानसिक पूजा
शालगराम (विष्णु जी की काल्पनिक मूर्ति) की करते थे। एकादशी का व्रत रखते थे। गीता,
पुराण, वेदों का पाठ तथा प्रचार किया करते थे। बाल ब्रह्मचारी थे। आयु एक सौ चार (104) वर्ष हो चुकी थी। जब कबीर परमात्मा की लीलामय आयु पाँच वर्ष थी। हठयोग करके समाधि लगाते थे। त्रिवेणी से आगे नहीं जा पा रहे थे। तब परमात्मा कबीर जी उनकी आत्मा का ब्रह्मरंद्र खोलकर ब्रह्मलोक में ले गए। फिर सतलोक में अपने निज अमर स्थान पर ले गए। तब रामानन्द जी को पारख हुआ कि विष्णु तो परमात्मा कबीर जी के सामने कोई मायने नहीं रखते। कबीर जी समर्थ परमेश्वर हैं। परमात्मा कबीर जी की आँखों देखी महिमा कही जो इस पारख के अंग में पढ़ने को मिलेगी।
सकंदर लोधी राजा का असाध्य रोग केवल आशीर्वाद से समाप्त किया। सिकंदर
राजा ने स्वामी रामानन्द जी का सिर तलवार से काट दिया था। स्वामी जी की मृत्यु हो गई
थी। कबीर जी ने उसके सामने स्वामी रामानन्द जी को जीवित कर दिया।
एक मृत बालक कमाल को सिकंदर लोधी दिल्ली के सम्राट के सामने जीवित किया।
एक कमाली नाम की मृत लड़की शेखतकी की बेटी को कब्र से निकलवाकर लाखों
व्यक्तियों तथा सिकंदर लोधी राजा के सामने जीवित किया। अनेकों अनहोनी की जो केवल समर्थ परमात्मा ही कर सकता है। जिनसे पारख होता है कि कबीर जुलाहा पूर्ण परमेश्वर है जो इस पारख के अंग में विस्तारपूर्वक बताया गया है।
◆ वाणी नं. 1.12 :-
गरीब, न्यौलि नाद सुभांन गति, लरै भवंग हमेश। जड़ी जानि जगदीश हैं, बिष नहीं व्यापै शेष।।1।।
◆ भावार्थ :- परम आदरणीय संत गरीबदास जी साधकों को बता रहे हैं कि जिसको
सारनाम मिल गया है और मर्यादा में रहकर साधना कर रहा है। उस भक्त को नेवला
(न्यौल) बताया है और काल ब्रह्म को शेषनाग जो भयंकर विषयुक्त प्राणी है। जैसे नेवला
जंगल में उत्पन्न एक नाग दमन जड़ी को नाकों द्वारा सूँघता है यानि उसकी गंध को श्वांसों
में भर लेता है। तब अपने से कई गुणा शक्तिशाली सर्प से लड़ाई करता है। सर्प के मुख के
निकट जाकर उस जड़ी की गंध को श्वासों द्वारा छोड़ देता है। उस जड़ी के प्रभाव
से सर्प को चक्कर आने लगते हैं। नेवला पुनः शीघ्रता से उस जड़ी को सूंघकर आता है।
उस समय तक सर्प भागने की कोशिश करता है। सर्प का दिल घबराने लगता है। नेवला
सर्प के ऊपर मुंडी पर बैठकर उसकी नाक के पास जड़ी की गंध छोड़ता है। सर्प विवश
होकर शांत हो जाता है। तब नेवला सर्प की मुंडी (फन) को काटकर मार देता है। यहाँ पर
बताया है कि जीव (भक्त) तो नेवला है जो सारनाम का स्मरण श्वासों से करता है तथा काल
ब्रह्म (ज्योति निरंजन) को शेषनाग जैसा खुंखार सर्प कहा है। सारनाम प्राप्त भक्त रूपी
नेवला काल ब्रह्म रूपी अजगर को सारनाम के स्मरण रूपी गंध छोड़कर पराजित करके
सतलोक चला जाता है। कबीर परमेश्वर जी ने भी यही कहा है कि :-
◆ कबीर, जैसे फन पति (सर्प) मंत्रा सुन, राखै फन सकोड़। ऐसे बीरा मेरे नाम से, काल चलै मुंह मोड़।।
◆ सरलार्थ :- कबीर जी ने कहा है कि जैसे सर्प ने फन उठा रखा होता है तो गारड़ू (सर्प को वश में करने वाला) एक मंत्र बोलता है। उस मंत्र के प्रभाव से सर्प अपने फन (डोहरे) को सकोड़ (इकट्ठा) करके भागने का विचार करता है। पहले डसने के उद्देश्य से
फन फैला रखा था। इसी प्रकार सारनाम से काल ब्रह्म भक्त को हानि न करके अपनी जान
बचाने की चिंता करके चल पड़ता है। रास्ता छोड़ देता है।
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